Sunday, July 4, 2010
खुद्दार किसान का अन्तर्द्वन्द्व
खुद्दार किसान का अन्तर्द्वन्द्व
मैंने नहीं मांगी तुमसे दया
दिशा या दृष्टि नहीं मांगी
नहीं चाहा चलना
तुम्हारे सुझाए रास्तों पर
तुम्हारे उपदेशों को भी नहीं सुनना चाहता था मैं
मुझे चिढ़ थीअनुकरणों से
उदाहरणों से
मैं बोना चाहता था
स्वयं के पसीने का बीज
उद्यम की धरती उर्वरा बनाना चाहता था
मुझे नहीं चाहिए थीं नगदी फसलें
मैं तो ज्वार-बाजरा उगाना चाहता था
मुझे नहीं फिराने थे
सहायता के ट्रैक्टर
मुझे तो पुरुषार्थ के हल चलाने थे
मुझे इंतजार नहीं था मेघों का
मैं स्वयं श्रम का जल बनपसरना चाहता था
फसलों की नसों मेंमिट्टी में
तुम्हारी आँखों में
सच पूछो तो मुझे आज भी नफरत है
ऋण लेने सेऔर जिंदगी से गहरा प्यार है
लेकिन यही है मुसीबत है इन दिनों
कि किसान जीवन ऋण बिना सधता नही
और खाली पेट प्यार पनपता नही
मैं दोनों में से किसे साधूँ
जिंदगी से अपने प्यार कोया तिल-तिल बढ़ते उधार को
खुलकर चिल्लाऊँया मुँह ढाँप सो जाऊँ
नए मुआवजे की प्रतीक्षा में
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